फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था
Saturday, April 30, 2016 फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था
फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था
 सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था।
 
 वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार सू
 मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था।
 
 रात भर पिछली ही आहट कान में आती रही
 झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था।
 
 ख़ुद चढ़ा रखे थे तन पर अजनबीयत के गिलाफ़
 वर्ना कब एक दूसरे को हमने पहचाना न था।
 
 याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी’अदीम’
 भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था।
 
 
 
 

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